मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई : भक्तिकालीन कवयित्री मीराबाई


मीराबाई मध्यकालीन काव्य की भक्त कवयित्री हैं। श्रीकृष्ण के प्रति इनकी भक्ति माधुर्य-भाव की भक्ति की थी। फलतः इनकी कविता में भक्तिभावना की अभिव्यक्ति प्रेम रसमार्गी है। मीराबाई की उपसना माधुर्यभावकी थी अर्थात् वे अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रूप में करती थी।... जब लोग इन्हें खुले मैदान मन्दिरों में पुरुषों के सामने जाने से मना करते थे तब वे कहतीं कि कृष्ण के अतिरिक्त और पुरुष हैं कौन जिसके सामने लज्जा करूँ?”1  इनका प्रेम यथा ब्रजगोपिका नाम था और इनके प्रेम का आलम्बन श्रीकृष्ण थे। मीराबाई की काव्य में भक्ति की भावना उनकी विरह भावना से अभिन्न होकर अभिव्यक्त हुई है। मीराबाई एवं श्रीकृष्ण के मध्य जो भावनात्मक सम्बन्ध था, वही मीराबाई की प्रेमाभक्ति थी जिसे भक्तों एवं संतों ने स्पृहणीय और सर्वोत्तम माना है। इनके गीतों में मूलतः यही प्रेमाभक्ति लक्षित होती है। मीराबाई के सम्बन्ध में ध्रुवदास भक्तनामावलीमें लिखते हैं कि, “लाज छाँड़ि गिरधर भजी करी न कछु कुलकानि। सोई मीरा जग विदित प्रगट भक्ति की खानि।... नृत्यत नूपुर बाँधि कै नाचत लै करतार। विमल हियौ भक्तनि मिली तृन सम गन्यो संसार।।2


बीज शब्द: भक्तिकाव्य, लोक, मीराबाई, माधुर्य-भाव, श्रीकृष्ण, प्रेम-विरह, भक्ति-भावना, उपासना एवं प्रियतम।


प्रस्तावना


मीराबाई का जन्म मेड़ता के निकट कुड़़की गाँव में सं. 1555 वि. के आस-पास हुआ था। ये जोधपुर के राठौऱ राजा राव जोधाजी के पुत्र राव दादूजी की पौत्री तथा रत्नसिंह जी की पुत्री थीं। बचपन में ही इनकी माता का देहांत हो गया। इसके पश्चात् राव दादू इन्हें मेड़ता ले गय, जो स्वयं वैष्णव अनुयायी थे। राव दादू के यहाँ साधुओं का सत्संग हुआ करता था, जिसका प्रभाव बचपन से ही मीराबाई के जीवन पर पड़ा। यही कारण था कि बचपन से ही इन्हें गिरधर गोपाल के प्रति अनुरक्ति हो गयी। मीरा का विवाह उदयपुर के राजा राणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआा। विवाह के थोड़े समय बाद ही इनके पति का परलोक गमन हो गया। इसके बाद मीरा को अपने स्वछंद आचरण के कारण राजपरिवार से बहुत यातनाएँ दी गयीं। डॉ. बच्चन सिंह लिखते हैं कि, “सामंत और महाजन दोनों ने मिलकर संकट उत्पन्न किया। वे खुशी-खुशी विष का प्याला पी गयीं। पिटारी में भेजे हुए साँप भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सके। ‘जाको राखे साइयां मारि न सकै कोय।’ मीरा का बाल बाँका नहीं हुआ।’’3  इसके पश्चात् वे वृंदावन चली गयीं और फिर बाद में द्वारिका आकर रणछोड़ मन्दिर में श्रीकृष्ण के प्रति भजन-कीर्तन हुए अपनी इहलौकिक लीला समाप्त कर देती हैं। इनकी रचनाओं में ‘गीतगोविन्द की टीका’, ‘नरसीजी का मायरा’, ‘राग सोरठा पद’ एवं ‘राग गोविन्द’ इत्यादि हैं।


शोध-विस्तार


मीराबाई अपने जीवन के सारे सम्बन्धों को छोड़ केवल ‘मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई’ अर्थात् श्रीकृष्ण को अपना सर्वस्व मानती हैं। वे अपने जीवन में हुए अपने सम्बन्धियों से मतभेद एवं उन पर किये गए अत्याचारों का वर्णन करते हुए कहती हैं कि-


“मीरा मगन भई हरि के गुण गाय।

सांप पिटारा राणा भेज्यो, मीरा हाथ दियो जाय।।

न्हाय घोय जब देखण लागी, सालिगराम गई पाय।

जहर का प्याला राणा भेज्या, अमृत दीन्ह बनाय।।

न्हाय घोय जब पीवण लागी हो अमर अंचाय।।”4


मीराबाई के भक्तिकाव्य में प्रेम की गम्भीर अभिव्यंजना है। इनके भक्तिकाव्य में विरह की वेदना है और मिलन का उल्लास भी। इनकी कविता का प्रधान गुण सादगी और सरलता है। इन्होंने मुक्तक गेय पदों की भक्तिमयी रचना की। लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत दोनों क्षेत्रों में इनके पद आज भी लोक में अतिप्रसिद्ध हैं। जैसे-


‘‘बसो मेरे नैनन में नंदलाल।

मोहनी मूरत, साँवरी सूरत, नैना बने रसाल।।

मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, अरुन तिलक दिए भाल।।

अधर सुधारस मुरली राजत, उर बैजंती माल।।

छुद्रघंटिका कटि तट सोभित, नूपुर शब्द रसाल।

मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्तबछल गोपाल।।”5


हिन्दी भक्तिकालीन में मीरा की भक्ति प्रेम की पराकाष्ठा को प्राप्त है। इनके काव्य में मानवीय प्रेम की अपार व्यापकता और विविधता है। प्रेम की काव्यानुभूति, जीवनानुभूति और भक्ति की अनुभूति का केन्द्रीय तत्त्व है। इनकी भक्ति प्रेम और मानवीय सरोकार से जुड़ा हुआ है। सामाजिक विकास की प्रक्रिया में कवयित्री मीरा का ‘प्रेम’ प्रेरणास्रोत है। स्त्री-मुक्ति की आकांक्षा तथा छटपटाहट इनकी रचनाओं में बखूबी व्यक्त हुआ है। मीराबाई का मानना है कि मन से हरि के शरण में अपने आपको समर्पित कर दो। उनके शरण में जाने पर ही यह जीवन सौन्दर्यमयी होगा। श्रीकृष्ण की शरणागति में मनुष्य के दैहिक, दैविक और मानसिक दुःख दूर हो जाते हैं। इनकी भक्ति को प्रह्लाद ने अनुभति किया तो वे इन्द्र की पदवी को धारण कर लिया और ध्रुव ने रसपान किया तो वे अटल बन गये। निश्चित रूप से श्रीकृष्ण ऐसे भक्तों को शरण देते हैं, जो निराश्रित हैं और श्रीकृष्ण नख से शिख तक जो शोभा को धारण करने वाले हैं। गोपों की रक्षा के लिए इन्होंने गोवर्धन धारण किया और इन्द्र के गर्व का हरण किया। इसी कारण वश मीरा भी गिरधर लाल की दासी बन गयी। मीरा का मानना है कि उनके आराध्य श्रीकृष्ण अपार संसार सागर से पार कराने वाले तारनहार हैं। इसीलिए मीरा कहती हैं कि-


‘‘मण थें परस हरि रे चरण।

सुभग सीतल कँवल कोमल, जगत ज्वाला हरण।

जिण चरण प्रहलाद परस्याँ, इन्द्र पदवी धरण।...

जिण चरण कालियाँ नाथ्याँ, गोप-लीला करण।

जिण चरण गोबरधन धार्यों, गरब मघवा हरण।

दासि मीरा लाल गिरधर, अगम तारण तरण।।’’6


            विश्वनाथ त्रिपाठी का अभिमत है कि, “मीरा मध्यकालीन भक्त कवयित्री हैं। उनकी कविता में भक्तिभावना की अभिव्यक्ति हुई है। लेकिन वे मध्यकालीन सामंती व्यवस्था की पीड़ित नारी, भक्त कवयित्री हैं। इस पीड़ित नारीत्व को भूलकर उनकी कविता को हृदयंगम नहीं किया जा सकता। मध्यकाल का पुरुष कवि भक्त होने के लिए ‘जाति-पांति, धन-धरम, बड़ाई’ छोड़ता था तो स्त्री को ‘लोक-लाज, कुल-श्रृंखला’ तोड़नी पड़ती थी। यह श्रृंखला मीरा की कविता में बहुत महत्त्वपूर्ण है। वे भक्तिभावना की अभिव्यक्ति करते समय, सुंदर से सुंदर दृश्य का, ‘गिरधर-नागर’ की मोहकता का, चित्रण करते समय भी इस श्रृंखला में बंधे होने की अनुभूति को व्यक्त करती हैं।’’7 हालाकि मीरा की रचनाओं में लोक-लाज, कुल को तोड़ने की बात बहुत बार आई है। यह अकारण नहीं। मीरा ने कृष्ण के प्रति पे्रम का जो चित्रण किया है, वह ऐसी नारी का चित्रण है जिसके प्रेम में समाज कदम-कदम पर बांधा पहुँचाता है। मीरा की भावना उस समाज की नारी की भावना है, जहाँ नारी अपनी प्रेम की अभिव्यक्ति सहज तौर पर नहीं कर सकती।

भक्तिकालीन कवयित्री मीराबाई प्रेम की कवयित्री हैं। उनकी रचना-कर्म में आत्माभिव्यक्ति की आकांक्षा आत्म-प्रसार की आकांक्षा का पर्याय है। मध्ययुगीन समाज में जहाँ लड़कियों को घर की चौखट से बाहर कदम नहीं रखने दिया जाता था और प्रेम करना अभिशाप समझा जाता था। पूरा का पूरा समाज क्रूर तथा संकीर्ण मानसिकता का द्योतक था। ऐसे जटिल परिस्थितियों से बाहर निकलना स्त्रियों के लिए मुश्किल भरा चुनौती था। इस चुनौती को मीरा ने अदम्य साहस के साथ ललकारा। प्रेम की पुरानी चहारदीवारी को तोड़ती मीरा की कविता सभी प्रकार की क्षुद्रताओं-संकीर्णताओं के प्रतिरोध कविता है। वे अपने पदों में लिखती हैं कि-


‘‘माई सांवरे रंग राची।

साज सिंगार बाँध पग घूंघर, लोकलाज तज नाची।

गयां कुमत लयां साधं संगत स्याम प्रीत जग सांची।’’- मीराबाई


प्रेम, भक्तिकाव्य का मूल चेतना है। लोक में प्रेम की यथार्थ अनुभूति अनन्यता की अनुभूति है। अनन्यता शारीरिकता की नहीं, हृदय की बात है। हृदय में बसने के ही कारण प्रिय भावसत्ता बन जाता है। प्रेम स्वभाव से ही सत्ता विरोधी और स्वतंत्र होता है। वह अपने प्रिय को छोड़कर किसी और की सत्ता स्वीकार नहीं करता। सत्ता से प्रेम के संघर्ष की कहानी उतनी ही पुरानी है, जितनी प्रेम की कविता की परंपरा। यह आवश्यक नहीं कि प्रेम की कविता में विरोधी सत्ता हमेशा सामने हो। वह कहीं प्रत्यक्ष होती है और कहीं परोक्ष। प्रेम ही मीरा के सामाजिक संघर्ष का साध्न है और साध्य भी। मीरा की कविता प्रेम-भक्ति की कविता है, ऐसी कविता है, जो ‘जग की कविताई’ से परे हैं।

श्रीकृष्ण, मीराबाई के प्रेमाभक्ति के आलंबन हैं। इनके जीवन से सम्बन्ध्ति तथ्य इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि मीरा की इस कृष्ण-भक्ति को राज-परिवार के भीतर से ही नहीं, लोक तथा समाज के बीच भी प्रतिरोध किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि मीरा को राज-परिवार छोड़कर बाहर जाना पड़ा। मीरा के आचरण को भले ही उसका सम्बन्ध कृष्ण-भक्ति से हो, घर-परिवार तथा समाज में स्वीकृति नहीं मिली। मसलन, उन्हें दर-दर भटकना पड़ा। ‘‘मीरा समूचे भक्तिकाल में अकेली नारी भक्त हैं जिन्होंने अपनी आत्म-निवेदनपूर्ण कविता में अपनी भक्ति और प्रेम के माध्यम से, एक पूरी की पूरी समाज-व्यवस्था की असहिष्णु और अमानवीय मानसिकता को, उसकी भेदभावपूर्ण रीति-नीति को और उसके दोमुँहे चेहरे को बेनकाब किया है।’’8

मीराबाई की भक्तिकाव्य का दायरा सीमित है, परन्तु अपने सीमित दायरे में भी अनुभूति की गहराई और उसकी प्रभाव सघनता में वह समूचे भक्तिकालीन काव्य में अद्वितीय है। मीराबाई की माधुर्य-भावना में जो भक्ति की सत्यता, प्रेम की जो टीस, अनुभूति की जो गहराई और प्रामाणिकता पाई जाती है, प्रेम की चरम परिणति विरह में होती है। वियोग प्रेम का तप्त स्वर्ण है। प्रेम का परिपूर्णत्व, घनीभूत वियोग पीड़ा में ही माना गया है। अपितु वियोग प्रणय की साधना है और संयोग उसकी सिद्धि है। मीरा के गीतिकाव्य में यही साधना पक्ष प्रबल है। ‘‘मीराँबाई का लगाव सम्भवतः, श्रीकृष्ण की एक मूर्ति विशेष के साथ आरम्भ हुआ था, उसके मूल रूप के प्रति वे क्रमशः आधिकाधिक आकृष्ट होती गई, तीर्थाटन द्वारा उसकी अन्य मूर्तियों से भी परिचित हो जाने पर, उनकी भावना और भी व्यापक एवं परिष्कृत होती गई। अन्त में अवतारी श्रीकृष्ण को ब्रह्मस्वरूप तक मान लेने पर भो, वे एक मूर्ति में ही लीन हुई।’’9

मीरा की चिरन्तन विरह साधना उनकी अनन्य प्रेमाकुलता की प्रतीक है। उसमें मीरा के अलौकिक प्रियतम के लिए विरहाग्नि जल रही है जो उनके मनोजगत् का मन्थन कर रही है। इस विरह सागर की थाह प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर है। शब्दों के बाँध में मीरा की व्यथा बाँधी नहीं जा सकती। अतः मीरा का प्रेमी हृदय विरह अग्नि में तप-तपकर कृष्णमय हो गया था। मीरा का प्रेम अनोखा है जो विरह से आरम्भ होकर विरह में ही समाप्त हुआ है। मीरा का वियोग कल्पनाजन्य अथवा भावातिरेक की उपज नहीं है, बल्कि यह उनके जीवन संघर्षों से निःसृत है। आँसू मीरा के जीवन का सत्य है, यही आँसू उनकी वेदना के प्रतीक हैं।


‘‘बिरहनी बावरी सी भई।

ऊंची चढ़ि अपने भवन में टेरत हाय दई।

ले अंचरा मुख अंसुवन पोंछत उघरे गात सही।

मीरां के प्रभु गिरधर नागर बिछुरत कछु न कही।।’’10


मीराबाई के विरह का रूप प्रधनतः प्रतीक्षा है, जिस प्रियतम के रूप ने उन्हें विह्वल कर रखा है, वह मिलता नहीं। वह आने का वादा करके चला गया है, नेह की नौका मझधर में डाल कर चला गया, वह लगन लगा कर चला गया है, उसने अपना मन काठ कर लिया है। मीरा उसे कभी ‘जोगी’ भी कहती हैं। जोगी घर से विरक्त होकर चला गया है, वह किसी का मीत नहीं। उसे खोजने के लिए मीरा ‘जोगन’ हो जाना चाहती हैं, उनकी सूरतमन में बसी है और उसके बिना रात को नींद नहीं आती। उसके बिना जगत् निस्सार है। मीरा बार-बार उससे घर आने की प्रार्थना करती हैं। वह आता नहीं। भक्त के लिए वह प्रियतम भगवान है। इस प्रियतम का रूप मीरा के यहाँ इतना आत्मीय है कि लगता है कि जैसे प्रिय-विषयक उनकी कल्पना ने यथार्थ का रूप धारण कर लिया हो। यही कारण है कि मीरा तत्कालीन प्रथा के अनुसार सती नहीं हुई, क्योंकि वे स्वयं को अजर अमर स्वामी श्रीकृष्ण की चिरसुहागिनी मानती हैं। वे कहती हैं कि-


‘‘जग सुहाय मिथ्या री सजनी हांवा हो मिट जासी।

वरन् करया हरि अविनाशी म्हारो काल-व्याल न खासी।।’’11


मीरा की भक्ति-काव्य में नवधा भक्ति के सारे तत्व मौजूद हैं। अर्थात् श्रवण, कीर्तन, ईश्वर स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दना, दास्य भक्ति, सख्य और आत्मनिवेदन- इन्हीं नौ प्रकार की भक्ति में मीरा का प्रेम कृष्ण के प्रति समर्पित रहा है। उनकी रचना में स्वाभाविक रूप से घुल-मिल गई हैं। मीरा की भक्ति विशेषतया सगुणोपासना सम्बन्ध में संयोग-उल्लास और विरह-व्यथा दोनों की मार्मिक अभिव्यक्ति है। मीराबाई की कविता के मूल में दर्द है। वे बार-बार कहती हैं कि कोई मेरे दर्द को पहचानता नहीं, न शत्रु न मित्र। मीरा ने कृष्ण से अपनी अनन्यता व्यक्त की है तथा व्यर्थ के कार्यों में व्यस्त लोगों के प्रति दुख प्रकट किया है। इस अर्थ देखा जाय तो हिन्दी में समस्यामूलक प्रेम का जैसा चित्रण मीराबाई ने किया वैसा अन्य से नहीं हो सका। प्रेम के दर्द की ऐसी तस्वीर समझने वाला भी दूसरा कवि नहीं हुआ। मीराबाई की कविता की विशेषता है- सच्ची अनुभूति, मार्मिक संवदेना और हार्दिक आवेग। चूँकि मीरा ने जीवन भर दर्द पिया था, इसलिए वे दर्द का तलस्पर्शी वर्णन कर सकीं।


‘‘हे री मैं तो प्रेम-दिवानी मेरो दरद न जाणै कोय।

घायल की गति घायल जाणै, जो कोई घायल होय।’’- मीराबाई


यहाँ देखा जाय तो ‘दरद-दिवाणां’ का ‘दरद’ अनुभूति है। अनुभूति अनिर्वचनीय है। कहा जा सकता है कि मीरा के यहाँ एक साथ अंशतः निर्गुण एवं सगुण भक्ति स्वरूप मौजूद है। गिरिधर-नागर की भक्ति सबके प्रति एक-सी है। यही मीरा की भक्ति की विशिष्ट पहचान है जो अन्य भक्त कवियों से भिन्न है।


यह सर्वविदित है कि कविता का कोई रूप सायास निर्मित नहीं करना है। यह उस प्रेम की भी विशेषता है जो संवेदित आधार पाकर प्रस्फुटित हो उठती है। यही आधार मीराबाई को भी मिला। मीराबाई ने मुख्यतः आत्मनिवेदन और उसमें भी अपनी विरहाकुलता समर्पण, अनन्यता आदि ही प्रकट की। इनके काव्य की अपनी एक अलग विशेषता है। उनकी कविता में जीवनानुभव या अनुभूति से रूप का सम्बन्ध दूसरे साहित्य रूपों की तुलना में अध्कि आत्मीय और कुछ जटिल होता है। उनकी काव्य में निहित जो विद्रोह की भाषा है। निस्संदेह यह स्वर उनकी वेदना के गर्भ से पैदा हुआ है, जो संपूर्ण स्त्री, जाति के ऊपर लादी गई अमानवीय व्यवस्था का प्रतिपफल है। जैसे- ‘‘सीसोद्यो रूठ्यों म्हारों काई करलेसी। म्हें तो गुण गोविन्द का गास्यां री माई। राणो जी रूठ्या बारो देस रखासी।’’ इनमें निहित विद्रोह निष्क्रिय न होकर कुछ कर गुजरने पर आमादा निर्भीक व्यक्तित्व को सामने लाता है। पुरुष वर्चस्ववादी व्यवस्था की परंपरागत सड़ी-गली मान्यताओं और स्त्री के प्रति द्वेशपूर्ण आचरण के प्रति, मीरा का विद्रोह, अन्य भक्त कवियों के सामाजिक व्यवस्था से विरोध के उपमानों से भिन्न नितांत अलग उपमानों का प्रयोग करता है, जिसे एक स्त्री ही कर सकती थी।

मीराबाई के माधुर्य भक्ति-भाव के आलम्बन श्रीकृष्ण हैं। उन्होंने कृष्ण को पति कह कर घोषित किया हैं वे अपने प्रियतम को सदा ‘पिया’, ‘पिव’ एवं ‘भरतार’ आदि शब्दों के माध्यम से सम्बोधित करती हैं और उनके प्रति आत्म-निवेदन करती हैं। मीरा के प्रियतम गिरधर नागर मोर मुकुटधारी हैं और उनके गले में वैजयन्ती माला सुशोभित हो रही है। वे पीताम्बर धारण किये वे वन-वन में गायें चराते हैं और  कालिन्दी के तट पर शीतल कदम्ब की छाया में मधुर मुरली बजाते हैं। इस प्रकार अपनी सहज माधुरी से गोपियों को मोहित कर उनसे रासादि क्रीड़ाएँ करते हैं। इसी मोहनलाल की माधुरी छवि मीरा के मन में बस गई है और वे उस पर अपना तन-मन वारने को प्रस्तुत हैं। उस मोहन के मोहित करने वाले रूप को देखकर मीरा के नेत्रों को उन्हीं को देखने को लालायित हैं। वह अपनी इस स्थिति को अपनी सखी के सामने प्रस्तुत करती हैं-


‘‘माई री मैं तो लीयो गोबिन्दो मोल ।।

कोई कहै छाने कोई कहै चैड़े, लियोरी बजंता ढोल ।

कोई कहै मुँहघो कोई सुँहघो, लियो री तराजू तोल ।

कोई कहै कारो कोई कहै गोरो, लियोरी अमोलिक मोल ।

याही कूँ सब लोग जाणत है, लियोरी आँखी खोल

मीराँ कूँ प्रभु दरसण दीज्यौ, पूरब जनम कौ कोल।।’’12


            मीराबाई की मधुर भाव-साधना अन्य ब्रज मंडलीय कृष्ण-भक्तों से भिन्न है। जहाँ अन्य भक्त कवियों ने गोपी-भाव या सजीभाव से राधाकृष्ण या गोपी-कृष्ण की मधुर प्रेम-लीलाओं का आस्वादन किया है, वहाँ मीरा ने अपने को कृष्ण की स्वकीया मान कर कृष्ण की मधुर प्रेम-लीलाओं का रसपान किया है। यही कारण है कि मीरा के काव्य में मिलन की अपेक्षा विरह को तीव्र प्रेमानुभूति दिखाई देती है-


‘‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।।

जाके सिर है मोरपखा मेरो पति सोई।

तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई।

छांड़ि दई कुलकी कानि कहा करिहै कोई।।...

भगति देखि राजी हुई जगत देखि रोई।

दासी मीरा लाल गिरधर तारो अब मोही।।’’13


देखा जाय तो मीराबाई एक बड़े घराने की लड़की श्रौर उससे भी प्रतिष्ठित कुल की रमणी थीं, इस कारण, वंश-परंपरा के प्रतिकूल उनका राह पकड़ना देख उनकी ओर लोग आश्रय की दृष्टि से देखने तथा उन्हें अनेक प्रकार से समझाने लगे थे। बार-बार उनकी कुल मर्यादा के साथ साधु सुलभ जीवन की तुलना करते हुए वे उन्हें अपनी लोक-लज्जा की रक्षा करने का उपदेश देते तथा उन्हें भक्तिमार्ग से छुड़ाना चाहते थे। किंतु मीराँ का हठ अपूर्व था, श्रीकृष्ण की भक्ति में शरणागति हो जाने के बाद वे अपने भक्तिपथ से आजीवन विचलित नहीं होती हैं। अंत में वे कहती हैं कि ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों ने कोय।’


निष्कर्ष


निष्कर्षत: यह कहा जा सकता हैं कि मीराबाई के पदों में विरह से अधिक प्रेम-भाव का आधिक्य है। गिरधर गोपाल के लक्ष्य कर माधुर्य-भाव से परिपूर्ण पदावली साहित्य के कारण ही हिन्दी के श्रेष्ठ माधुरीपासक भक्त कवियों में मीरा का अत्यंत उच्च स्थान प्राप्त है। मीरा के पदों में निहित बिम्ब स्त्री जीवन के कई स्तरों को अपने में समाए हुए हैं, और जीवन के उन विभिन्न स्तरों की परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया में गतिशील रहकर अनुभव को अंतहीन बना रहा है। साथ ही एक स्त्री के आत्मानुभव से दूसरे स्त्री के आत्मानुभव में संक्रमित करता हुआ और आगे बढ़कर उसे देशकाल से परे करते हुए एक स्त्री के अनुभव को जातीय और अंतर्जातीय अनुभूति में रूपांतरित करता है। यही कारण है कि आज से चार सौ साल पहले लिखे गए मीरा के पद और उनकी भक्ति आज भी उतने ही प्रासंगिक और लोकव्यापी बने हुए हैं।


सन्दर्भ सूची -           

1.   हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, लोकभारती प्रकाशन, पहली मंजिल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गाँधी मार्ग, इलाहाबाद-211004, आठवां संस्करण : 2012, पृ. 124

2.      मध्यकालीन प्रेम-साधना, परशुराम चतुर्वेदी, साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण : 1952, पृ. 60

3.    हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, बच्चन सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, दरियागंज, नई दिल्ली-02, संस्करण: 2006, पृ. 133

4.    मीराबाई की सम्पूर्ण पदावली, संपा. रामकिशोर शर्मा, लोकभारती प्रकाशन, पहली मंजिल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गाँधी मार्ग, इलाहाबाद-211004, पृ. 100

5.   हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, लोकभारती प्रकाशन, पहली मंजिल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गाँधी मार्ग, इलाहाबाद-211004, आठवां संस्करण : 2012, पृ. 124

6.   मीराबाई की सम्पूर्ण पदावली, संपा. रामकिशोर शर्मा, लोकभारती प्रकाशन, पहली मंजिल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गाँधी मार्ग, इलाहाबाद-211004, पृ. 71

7.       मीरा का काव्य, विश्वनाथ त्रिपाठी, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण: 2014, पृ. 83

8.   भक्ति आंदोलन और भक्ति काव्य, शिवकुमार मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, पहली मंजिल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गाँधी मार्ग, इलाहाबाद, संस्करण : 2010, पृ. 164

9.      मध्यकालीन प्रेम-साधना, परशुराम चतुर्वेदी, साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण: 1952, पृ. 81

10.     हिन्दी साहित्य का इतिहास, संपा. नगेन्द्र, मयूर पेपर बैक्स, ए-95, सेक्टर-5, नोएडा, संस्करण: 2014, पृ. 221

11.     हिन्दी साहित्य का इतिहास, संपा. नगेन्द्र, मयूर पेपर बैक्स, ए-95, सेक्टर-5, नोएडा, संस्करण: 2014, पृ. 221

12.  मीराबाई की सम्पूर्ण पदावली, संपा. रामकिशोर शर्मा, लोकभारती प्रकाशन, पहली मंजिल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गाँधी मार्ग, इलाहाबाद-211004, पृ. 86

13.  मीराबाई की सम्पूर्ण पदावली, संपा. रामकिशोर शर्मा, लोकभारती प्रकाशन, पहली मंजिल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गाँधी मार्ग, इलाहाबाद-211004, पृ. 82


लेखक परिचय:

डॉ. अवधेश कुमार, सहायक प्राध्यापक (अतिथि), हिन्दी विभाग, डॉक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, मध्य प्रदेश


उद्धृत करें:

कुमार, डॉ. अवधेश (मार्च, 2023). मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई : भक्तिकालीन कवयित्री मीराबाई. समकालीन हस्तक्षेप. 16(7), पृष्ठ 32-37 

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