अनादि
काल से स्त्री समाज, संस्कृति और साहित्य की
एक अतिमहत्वपूर्ण इकाई मानी जाती रही है। हमारी पुरूष सत्तात्मक समाजिक व्यवस्था में
स्त्री का जीवन पुरूष के इच्छा पर निर्भर रहा है, परंतु सुरेन्द्र वर्मा ने स्त्री के सशक्त
रूप को अभिव्यक्त किया है। स्त्री-चेतना के स्तर पर सुरेन्द्र वर्मा के नाटक में स्त्री-पुरूष
का यौन जनित संबंध खुले रूप में अभिव्यक्त किया गया है। इनका नाटक समकालीन भारत में
स्त्री-पुरूष संबंधों के बदलते हुए यथार्थ का गवाह बनकर हमारे सामने उपस्थित है। सुरेन्द्र
वर्मा ने स्त्री-पुरूष संबंधों के नए आयामों को भी तलाशने का काम किया है। कुल मिलाकर
सुरेन्द्र वर्मा ने स्त्री-चेतना के तहत स्त्री-पुरूष संबंध को उत्तर आधुनिक दृष्टिकोण
से देखा-परखा है।
प्रस्तावना
हिन्दी
नाट्य साहित्य के इतिहास में सर्वाधिक चर्चित रचनाकारों में से एक सुरेन्द्र वर्मा
हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी सुरेन्द्र वर्मा केवल नाटककार के रूप में विख्यात नहीं
हुए, अपितु साहित्य की अन्य विधाओं उपन्यास, कहानी,
व्यंग्य के अतिरिक्त एक अच्छे समीक्षक के रूप में अत्यन्त सजगता के साथ
सामयिक प्रश्नों को उजागर किया है। इनकी प्रतिभा एक रेखीय नहीं है। बल्कि बहुविध अनुसाशनों
एवं प्रयोगों के माध्यम से इन्होंने साहित्य के प्रत्येक विधा को नये-नये रत्नों से सजाया-सँवारा है।
सुरेन्द्र वर्मा के नाटकों का मुख्य विषय स्त्री-पुरूष संबंध है। हिन्दी नाटक एवं रंगमंच में एक ऐसे नाटककार हैं, जिन्होनें स्त्री-पुरूष के प्रत्येक रिश्ते एवं पहलुओं को बड़ी सूक्ष्मता तथा प्रत्येक कोण से अभिव्यक्त किया है। इनके समकालीन नाटककार रमेश वक्षी का नाटक- ‘देवयानी का कहना है’ औरत मर्द के रिश्ते को परखने एवं अपनी बोल्डनेस से चैंकाने वाला नाटक है। इनका अगला नाटक ‘तीसरा हाथी’ पारिवारिक सम्बधों की त्रासदी को चित्रित करता है। “स्त्री-पुरूष के काम सम्बंधों पर बेबाकी से कलम चलाने वाले मुद्राराक्षस का विशेष महत्व है। उनके नाटक ‘तिलचट्टा’ और ‘तेंदुआ’ इसी भावभूमि के नाटक हैं ‘तिलचट्टा’ देव(पति) और केशी (पत्नी) के बैडरूम मनोविज्ञान का सुक्ष्म एवं नाटकीय विश्लेषण करने वाला नाटक है।“1
स्त्री-चेतना
ऐतिहासिक-पौराणिक परिवेश
और मिथक के सहारे आधुनिक नाटक लिखने में मोहन राकेश के पंरपरा के अग्रणी नाटककार सुरेन्द्र
वर्मा हैं। समकालीन पात्रों के माध्यम से स्त्री-पुरूष के गहरे
एवं अनसुलझे रिश्तों को इनके अधिकांश नाटकों में वर्णित किया गया है।
सामाजिक स्तर पर समाज के
विकास का मूल आधार स्त्री-पुरूष संबंध ही है। इनमें पारस्परिक
आकर्षण, काल सापेक्ष और परिवर्तनशीलता दिखाई पड़ता है। स्वतंत्रता
प्राप्ति के बाद स्त्री-पुरूष संबधों में व्यापक परिवर्तन आया
है। शिक्षा, रोजगार, नए विचारों से परिचय
आदि स्त्री के कारण स्त्री के जीवन एवं सोच में व्यापक बदलाव की शुरूआत हुई। उसमें
अपनी स्त्री-अस्मिता के प्रति पर्याप्त सजगता आई। स्त्री रोजगार
के लिए घर से बाहर निकली तो उसमें आर्थिक स्वावलंबन आया। कालांतर में पति-पत्नी संबंधों में तनाव, तलाक, विवाहेतर संबंध आदि परिस्थतियाँ भी पैदा हुई। इन स्थितियों को कई नाटककारों
ने अपने नाटक का विषय वस्तु बनाया। सामाजिकता निभाने में व्यक्ति के सामने काम
-संबंध एक मुख्य समस्या के रूप में आया। “हमें आज हिन्दी साहित्य का
एक वृहद भाग सेक्स से ही आच्छादित मिलेगा”2 फ्रायड
के मनोविश्लेषण वाद के अनुसार जीवन के समस्त कार्य-व्यापारों
का मूल काम-वासना से प्रभावित होता रहता है।
‘सेतुबंध’ नाटक में प्रभावती
एवं कालिदास के प्रेम और यौन संबंधों की अवांछनीयता से उत्पन्न तनाव एवं द्वंद्व के
द्वारा स्त्री-चेतना को चित्रित किया गया है। प्रभावती अपने पिता
के दबाव में आकर वाकाटक नरेश से विवाह कर लेती है परंतु हृदय तल से वह पत्नी नहीं बन
पाती है। तभी तो प्रभावती कहती हैः- “मेरी भावना आज तक कुमारी
है...... मैं माँ बनी हूँ, लेकिन पत्नी
नहीं।“3 निर्द्वंद्व रचनाकार ने स्त्री-चरित्र के चेतना को मनोवैज्ञानिकता के आधार पर रचा है। उन्होंने नारी जीवन
की विवशता, परवशता, दैन्यता और असमर्थता
को इस नाटक के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। वस्तुतः उन्होंने प्रभावती को आधुनिक
नारी पात्र के रूप में चित्रित किया है। मुनीश शर्मा अपने पुस्तक ’सुरेन्द्र वर्मा के नाटक’ में लिखते हैं :-“सुरेन्द्र वर्मा का ’सेतुबंध’ प्रश्नों और उनके उत्तर
के उव्देलन के शहतीरों से एक खाई के ऊपर मार्ग तैयार करने वाले स्तम्भों को जोड़ता दिखाई
पड़ता है। शासक-शासित, स्त्री-पुरूष, माँ-पुत्र, पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेयसी, राजा-नागरिक, सभी समकक्ष खड़े, सम्बंध और विच्छेद के दूरस्थ तटों पर
स्थापित अस्तित्व है - किंतु इनके बीच सेतु बांधने वाला रज्जू(स्त्री) ही वह बंधन है जो दोनों को स्वतंत्र छोड़कर भी
एक-दूसरे को बांधे रखता है।“4
‘नायक खलनायक विदूषक’ स्त्री-पुरूष संबंध का ही जिक्र नहीं किया गया है, बल्कि
हटकर स्त्री-चेतना के ऐसे कोण को उभारा है, जहाँ मनुष्य विवश,
मजबूर और लचार है, समय के साथ अपने को परिवर्तित
करने को विवश है। जो नायक है, वही समय की जरूरत के अनुरूप खलनायक
बन जाता है, तभी तो सूत्रधार का वक्तव्य हैः-’’आर्ये! रस और भाव का चमत्कार दिखाने वाले कलाकरों के
आश्रयदाता महाराज विक्रमादित्य की इस सभा को आज विशेष रूप से बड़े-बड़े विद्वानों ने सुशोभित किया है, इसलिए इन्हें कालिदास
लिखित नया नाटक ’अभिज्ञान शाकुंतलम’ ही
दिखाना चाहिए। जाकर सब पात्रों को ठीक तो करो।“5
‘द्रौपदी’ नाटक प्रतीकात्मक
शैली में लिखा गया प्रसिद्ध नाटकों में से एक है। सुरेन्द्र वर्मा ने अलग-अलग नकाब वालों के माध्यम से स्त्री-पुरूष की विभिन्न
प्रवृत्तियों को दिखाने का प्रयास किया है। इस नाटक पर मोहन राकेश के सुप्रसिद्ध नाटक
‘आधे-अधुरे’ का प्रभाव सुस्पष्ट है।
नाटककार ने इस नाटक के माध्यम
से महानगरों में जीवन यापन करने वाले स्त्री-पुरूष अर्थ-प्राप्ति की दिशा में उलझे जीवन को अभिव्यक्ति दी है। इस नाटक में स्त्री-चेतना की बात ही नहीं बल्कि पुरूष के विविध रूपों को दर्शाया गया है,
जैसे महाभारत काल की द्रौपदी को पाँच पति थे आज की स्त्री की भी अपने
पति के पाँच रूप देखने को मिलते हैं। डॉ0 रमेश गौतम का कथन इस
दृष्टि में महत्वपूर्ण हैः-“द्रौपदी नाटक में सुरेन्द्र वर्मा
ने पुराने मिथक को नया संदर्भ देते हुए आधुनिक जीवन में भौतिक प्रतिमानों का निरन्तर
दबाब, अंधे संधर्ष की आपाधापी, युवा वर्ग
की स्वच्छता, परिवार का उत्तरोत्तर विघटन तथा मुख्य रूप से पुरूष
के विभिन्न रूपों का सामना करने वाली आधुनिक नारी की जटिल स्थिति का अंकन किया गया
है।“6
इस नाटक में सुरेन्द्र वर्मा
की दृष्टि वर्तमान परिवार के स्त्री-पुरूष के बीच पारस्परिक मतभेद,
मनभेद घृणा और दुख की स्थिति को व्यक्त करने की रही है। उन्होंने इसके
लिए नाटक को साहित्यिक विधा का सबसे सफल प्रयोग के रूप में दर्शाने का कार्य किया है।
इस नाटक के माध्यम से मदिरापन, बिन ब्याही मां बनती लड़कियाँ, स्वार्थी प्रेमी, अवैध संबंध तथा टूटते पारिवारिक व्यवस्था
का सफलतम अभिव्यक्ति प्रदान किया है। द्रौपदी महाभारत के चरित्र की जीवंतता का वर्तमान
स्वरूप में अक्कासी किया गया है। यह पौराणिक पात्र द्रौपदी नहीं समकालीन पत्नी सुरेखा
है जो अपने पति मनमोहन के पाँच विभाजित रूप को झेलने को विवश है। उसका पति मनमोहन पाँच
रूपों में आता है। “काला मुखोटा तामसिक सफेद सदवृति, लाल रंजित
एवं पीला उसके व्यापारिक जीवन का प्रतीक है।“7 इस
तरह मनमोहन कथित रूप में विभाजित व्यक्तित्व का स्वरूप है।
इस नाटक में भाई-बहन के वार्तालाप द्वारा आधुनिक युवा-पीढ़ी के अतिरंजित
संबंधों द्वारा स्त्री-चेतना का सशक्त रूप प्रस्तुत किया गया
है। उदाहरण के लिए
“अनिल: शनिवार को तुम्हारी
क्लास होती है ?
अलका:
(नाराजगी से) तुम्हें क्या मतलब होती है कि नहीं
होती ?
अनिल:
कहां होती है ? लाल किले के किसी सुनसान कोने में
?
कुतुब
में किसी झाड़ के पीछे, या ओखला में
किसी पेड़ के नीचे ?
अलका: (बिफर कर
) चुप रहो। - सुअर गधा पाजी”8
इस प्रकार स्त्री-चेतना का सशक्त रूप, पति-पत्नी
के संबंध को लेकर चर्चा हुई है। यह आधुनिक बोध की जीवन दृष्टि के धरातल पर चित्रित
है।
‘सूर्य की अंतिम किरण से
सूर्य की पहली किरण तक’ की मुख्य पात्र शीलवती आम भारतीय स्त्री की प्रतिनिधि पात्र
है, जिसमें शील मर्यादा, सहज ही उसके संस्कारों
में होती ही है। उसके लिए पति चाहे जैसे भी हो उसका सर्वस्व वही होते हैं। शीलवती का
स्वभाव सहज सरल कामनाओं से भरा मन प्रतोष के प्रति जुड़ाव रखती है। वह महाराज ओक्काक
से विवाह पूर्व प्रतोष की वाग्दत्ता थी। परंतु शीलवती की इच्छा जाने बिना उसका विवाह
ओक्काक से कर दिया जाता है। नायिका इस समाज में हर समय समझौता करती रही और मर्यादाओं
के नाम पर, नैतिकताओं के नाम पर, रिवाजों
के नाम पर, लेकिन उसके प्रतिदान के फलस्वरूप भी उसके साथ अपमान,
घृणा के अलावे कुछ नहीं मिलता। इसी प्रतिदान की अनदेखी और अपमान का प्रतिकार
दिखाई पड़ता है। नाटक की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैः “शीलवती: (स्थिर दृष्टि से ओक्काक की ओर देखती है कुछ रूककर) इस
तरह क्यों बोल रहे हो ?
ओक्काक:
(कृत्रिम आश्चर्य से) किस तरह बोल रहा हुँ?
शीलवती:
इसमें मेरा तो कोई दोष नहीं।“9
इस प्रकार इस नाटक में शीलवती
के माध्यम से आधुनिक स्त्री-चेतना का स्वर निकलता है,
तभी तो शीतलवती कहती है: “(आदेश से) निभाई है, मैने......
और पाँच वर्ष तक मार्यादा निभाने में उतना संतोष नहीं मिला, जितनी तृप्ति इस एक रात में मिली है।......... बोलो........ किसे मानूँ ?.......”10
स्त्री चेतना ‘रति का कंगन’ का मुख्य विषय है। यह नाटक स्त्री-पुरूष संबंधों की प्रकृति और उससे जुड़े नैतिकता-अनैतिकता के प्रश्नों से टकराता है। इसमें स्त्री-यौनिकता के मुद्दे को उन्होंने बहुत ही बेबाकी से उठाया है। उन्होंने नाटक का प्रारंभ ही काम-संबंध के महत्व को प्रस्तावित करने वाले गीत से किया गया है:-
“गायकवृन्दः कामोत्सव की बेला आयी
जिसमें सूरज नहीं डूबता। ऐसा है वह शासन
नहीं हिला है, नहीं हिलेगा। कामदेव-सिहांसन”11
उत्सव का धर्म उन्मुकता
और खुलापन होता है, दुराव एवं छिपाव नहीं। उत्सव पाप बोध एवं
अनैतिकता की चेतना से रहित होता है। कोई भी उत्सव अपने स्वभाव में सीमित एवं संकुचित
नहीं होता है, बल्कि व्यापक होता है। इस अर्थ में इस नाटक में
स्त्री-पुरूष संबंध में काम के स्तर पर एकनिष्ठता एवं समर्पण
जैसी स्थितियाँ नहीं दिखाई देती हैं, बल्कि बहुगमन एवं उन्मुकता
की स्थितियाँ दिखाई देती हैं। इस नाटक में बिना संकोच के विवाहेतर संबंध भी दिखाई देता
है। नाटक की भावजें मल्लिनाग से विवाहेतर संबंध स्थापित करती है। भावजों के अतिरिक्त
कोकिला भी पर पुरूष मल्लिनाग से काम-संबंध के कई स्तर पर जुड़ती
चली जाती है। लंवगलता के भी कई पुरूषों से संबंध बनाती है। लंवगलता के भी कई पुरूषों
से संबंध स्थापित होते हैं। मल्लिनाग खुले काम संबंध में विश्वास करता है और क्रमशः
कई स्त्रियों से संबंध बनाता है। उसमें उसकी भावजें भी है, उसके
पुस्तक-प्रकाशक की पत्नी कोकिला भी उसकी शोध निर्देशक लवंगलता
भी और श्रीवल्लरी भी।
वस्तुतः स्त्री-पुरूष संबंध से संबंधित एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है, कि
स्त्री-पुरूष दोनों एक-दूसरे की प्रति सदा
से आकर्षित होते रहे हैं। स्त्री का सौन्दर्य तो पुरूष के लिए आकर्षण की सबसे प्रबल
रही है। नाटक में सौन्दर्य प्रतियोगिता में वियोगी के दृष्टिकोण का प्रतिकार करते हुए
मल्लिनाग का निम्नांकित संवाद इस बात को अंकित करता हैः – “हम
सदा से चिरन्तन स्त्री-सौन्दर्य के पक्षधर रहे हैं। इन्द्र ने
अपाल के अधरों से सोमरस का पान किया था। तभी से कहा जाता है, कि स्त्री-अधर का चुम्बन करता है, सोमरस का घुँट पीता है। आज हमने अपनी आँखों से असाव पिया है, जीवन पर हमारी आस्था गहरी हुई है और इसके लिए हम इस समारोह के कृतज्ञ हैं।“12 स्त्री पुरूष संबंध को लेकर रूढ़ शास्त्रीय यह रही है कि उसका उद्देश्य संतान
प्राप्ति है। इसके माध्यम से संसार चक्र को गतिशील बनाए रखना है न कि मानसिक एवं शारीरिक
आनंद की प्राप्ति करना। इसके विपरीत प्रगतिशील परंपरा चिन्तन और आधुनिक दृष्टि स्त्री-पुरूष संबंध को एक स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में देखती है और आनंद उसकी सहज
उपलब्धि है।
समकालीन समय में अपनी यौन
इच्छा की संतुष्टि को लेकर स्त्रियां बहुत सजग है। यदि पति उनकी यौन अकांक्षा की तुष्टि
में समर्थ नहीं तो वे वैवाहिक दहलीज को पार करने में संकोच नहीं करती है। इसलिए
’रति का कंगन’ में कोकिला मल्लिनाग से जुड़ती है
और अपने पति से इसका कारण बताते हुए उसे काम-तुष्टि से जोड़ती
है। श्रीवल्लरी भी पुरूष रूप में मल्लिनाग के प्रति आकर्षित हो, जाने की बात कह उससे अपने यौन-संबंध को स्वीकार करती
है। यह स्वीकार इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि पुरूष सत्तात्मक
सामाजिक ढाँचा ऐसे संबंधो के होने पर भी उसे छिपा कर रखने का पक्षधर है। यह एक ऐसा
समाज है जो आवरण एवं मुखौटों के साथ जीता है और यथार्थ का सामना नहीं करना चाहता ।
वियोगी का निम्नांकित पंक्ति सामाजिक मानसिकता को दिखाता है। “वियोगी:......
हम इतने यथार्थवादी हैं कि यह मानते हैं कि कोई भी विधि विधान से बाहर
का सम्बंध -मिटा नहीं सकता लेकिन ऐसा सम्बंध अंधेरे में छिपा
रहना चाहिए। इसी में समाज का कल्याण है।.......’’13
निष्कर्ष
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्त्री-चेतना के स्तर पर सुरेन्द्र वर्मा के नाटक में स्त्री-पुरूष का यौनजनित संबंध खुले रूप में अभिव्यक्त किया गया है। इनका नाटक समकालीन भारत में स्त्री-पुरूष संबंधों के बदलते हुए यथार्थ का गवाह बनकर हमारे सामने उपस्थित है। सुरेन्द्र वर्मा ने स्त्री-पुरूष संबंधों के नए आयामों को भी तलाशने का काम किया है। कुल मिलाकर सुरेन्द्र वर्मा ने स्त्री-चेतना के तहत स्त्री-पुरूष संबंध को उत्तर आधुनिक दृष्टिकोण से देखा-परखा है।
संदर्भ सूची
1. जयदेव तनेजा,
नई रंगचेतना और हिन्दी नाटककार, तक्षशिला प्रकाशन
दिल्ली, प्रथम संस्करण-1994, पृ0-89
2. डॉ0 नगेन्द्र,
आधुनिक हिन्दी नाटक, नेशनल पब्लिंशिग हाउस, दिल्ली, प्रथम संस्करण-1998, पृ0-29
3. सुरेन्द्र वर्मा: तीन नाटक(सेतुबंध) वाणी प्रकाशन दिल्ली संस्करण-2005,
पृ0-35
4. मुनीश शर्मा: सुरेन्द्र वर्मा के नाटक (नैतिकता का झूठा-सच) तक्षशिला प्रकाशन दिल्ली, संस्करण-2014,
पृ0-133-134
5. सुरेन्द्र वर्मा: तीन नाटक (नायक खलनायक विदूषक) वाणी प्रकाशन,
दिल्ली, संस्करण- 2015, पृ0-70
6. रमेश गौतम: हिन्दी के प्रतीक नाटक, नचिकेता प्रकाशन, नई दिल्ली-55 संस्करण-1979 , पृ0-243
7. साठोत्तरी हिन्दी नाटक में स्त्री-पुरूष संबंध: डॉ0 नरेन्द्र नाथ
त्रिपाठी, पृ0-185
8. सुरेन्द्र वर्मा: तीन नाटक(द्रौपदी), वाणी प्रकाशन
दिल्ली संस्करण-2015, पृ0-79
9. सुरेन्द्र वर्मा: सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक, राधाकृष्ण
प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2008,
पृ0-36
10. वहीं पृ0-71
11. सुरेन्द्र वर्मा, रति का कंगन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली प्रथम संस्करण-2011, पृ0-07
12. सुरेन्द्र वर्मा, रति का कंगन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली,प्रथम संस्करण-2011, पृ0-87
लेखक परिचय
राकेश कुमार, पी-एच.डी. शोधार्थी (हिन्दी), विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग, तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय भागलपुर, बिहार
उद्धृत करें
कुमार, राकेश. (मार्च, 2023). सुरेन्द्र वर्मा के नाटकों में स्त्री-चेतना. समकालीन हस्तक्षेप, 16(7), पृष्ठ 9-13