कविवर अटल बिहारी वाजपेयी के काव्य में निहित जीवन दर्शन


आधुनिक भारतीय राजनीति के मार्गदर्शक स्व. श्री अटल बिहारी वाजपेयी बहुमुखी प्रतिभा के धनि व्यक्तित्त्व थे। राष्ट्रीय क्षितिज पर सुशासन के पक्षधर, विकास पुरुष और स्वच्छ छवि  कारण अजातशत्रु कहे जानें वाले श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी जी एक सहृदयी कवि और कोमल हृदयी, संवेदंशील पुरुष भी थे।इस शोध आलेख के माध्यम से हम श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की कुछ चुनिंदा कविताओं पर विचार करते हुए उनमें निहित जीवन दर्शन की समीक्षा करने का प्रयास करेंगे। 


बीज-शब्द:  भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी, युगपुरुष, मौत से ठन गयी, अपने ही मन से कुछ बोले, एक बरस बीत गया, कवि अटल बिहारी वाजपेयी, रार नयी ठानूंगा।


प्रस्तावना


दिसंबर 1924 के दिन मध्यप्रदेश के ग्वालियर में जन्में श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी का मन भी काव्यानुरागी पिता  पं. कृष्णबिहारी वाजपेयी के काव्य संस्कार और उदात्तता लिए हुए था। अपने समय  के कवि सम्मेलनों में जाने से पूर्व ही उस काल की समस्यापूर्ति कविताओं और अंतराक्षियों से यश प्राप्त करने वाले अटल जी का बालपने  से ही तुलसी से लेकर अज्ञेय तक के साहित्य से जो सरोकार रहा उसकी धारा परिपक्व हो जानें पर भी उनके भीतर ही भीतर प्रवाहित होती रही। हालांकि राजनीति की राह पर चलते हुए कई बार यह धारा अवरुद्ध भी हुई और कविता का उफान उनके भाषणों में रूपान्तरित होता रहा, जिसमें विचारों की गम्भीरता के साथ - साथ काव्यात्मक स्पर्श की कोमलता भी होती थी। हास्यपरक दृष्टान्त होते थे तो साथ ही निर्णयात्मक संकल्प भी। शायद इसीलिये अटल जी अपने आज भी भारतीय राजनीति के सर्वश्रेष्ठ वक्ताओं में शिखर पर देखे जाते है। वाजपेयी जी को काव्य रचनाशीलता एवं रसास्वाद के गुण विरासत में मिले हैं। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत में अपने समय के जाने-माने कवि थे। वे ब्रजभाषा और खड़ी बोली में काव्य रचना करते थे। पारिवारिक वातावरण साहित्यिक एवं काव्यमय होने के कारण उनकी रगों में काव्य रक्त-रस अनवरत घूमता रहा है।

उनकी सर्व प्रथम कविता 'ताजमहल' थी। यह ताजमहल की खूबसूरती पर नहीं थी, और न ही मुमताज के लिए शाहजहां के प्यार पर आधारित थी। बल्कि यह कविता उन श्रमिकों पर आधारित थी, जिन्होंने इस भव्य इमारत का निर्माण किया था, और कहा जाता है कि इन श्रमिकों के हाथ कटवा लिए गए थे:- 


'यह ताजमहल, यह ताजमहल

यमुना की रोती धार विकल

कल कल चल चल

जब रोया हिंदुस्तान सकल

तब बन पाया ताजमहल

यह ताजमहल, यह ताजमहल..!!'

कैसा सुंदर अति सुंदरतर...

ताजमहल, यह ताजमहल,

कैसा सुंदर अति सुंदरतर।

जब रोया हिंदुस्तान सकल,

तब बन पाया यह ताजमहल।

 

शोध-विस्तार


कविताओं से लोग आज भी अणुप्राणित होते हैं । उनका संघर्षमय जीवन, परिवर्तनशील परिस्थितियाँ, राष्ट्रव्यापी आन्दोलनों में सक्रीयता, जेल-जीवन,राष्ट्रीय नेता के रूप में उनका दीर्घ अनुभव इत्यादि आयामों के प्रभाव एवं अनुभूति ने उनके काव्य को यथार्थ जीवन के बहुत करीब ला खडा किया है। वाजपेयी जी की कविताओं में कोरी कल्प्नाओं का कोई स्थान नहीं दिखता, इन कविताओं में तो आत्मानुभवों से उपजित यथार्थ है ,उनकी कविताओं में व्यक्त आत्मपीडा जैसे जनमानस की ही पीडाओं की अभिव्यक्ति है:-


क्या खोया, क्या पाया जग में

मिलते और बिछुड़ते मग में

मुझे किसी से नहीं शिकायत

यद्यपि छला गया पग-पग में

एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!

पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी

जीवन एक अनन्त कहानी

पर तन की अपनी सीमाएँ

यद्यपि सौ शरदों की वाणी

इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!

जन्म-मरण अविरत फेरा

जीवन बंजारों का डेरा

आज यहाँ, कल कहाँ कूच है

कौन जानता किधर सवेरा


उक्त पंक्तियों में अटल जी ने जिस सहजता और सरलता के साथ जीवन की नश्वरता को बयां किया है उसमें उनके जिये हुए जीवन का सच तो है ही साथ ही कहीं न कहीं भारतीय जीवन दर्शन की स्पष्ट झलक भी दिखाई देती है। सच में मनुष्य जीवन भर क्या कुछ अर्जित करने का प्रयास नहीं करता, यह जानतें हुए भी कि सबकुछ यहीं छूट जाना है, साथ कुछ भी नहीं जाना। हम जुडे रहते हैं इच्छाओं के मोह से, रिश्तों के बंधन से। लेकिन उम्र ढलने के साथ ही जीवन की नश्वरता कहीं अधिक स्पष्ट होने लगती है , और समझ आने लगता है कि जो प्राण आज इस देह में वो प्राण कल किसी और देह में चले जायेंगे, देह की समाप्ति के साथ ही ये तमाम रिश्ते - नाते, तेरा - मेरा- इसका - उसका, मोह- घृणा सब खत्म हो जाता है। इस कविता के माध्यम से अटल जी जीवन की नश्वरता को स्वीकारते हुए कहते है कि जीवन में इतनी संतुष्टि अवश्य होनी चाहिये कि अंतिम समय पर हम स्वयं मृत्यु को स्वीकार करे, उसे अपनाएं। उस वक्त ये मलाल न रह जाए कि हाय थोडा और जी लेते।  किंतु जीवन की इस नश्वरता के स्वीकार्य के साथ ही वो अपने कर्म पथ पर सदैव अग्रसर होने के लिये प्रेरित करते हैं। अटल जी स्वयं भी कर्मयोगी थे, जीवन के किसी भी मोड पर वो हार  मानकर नहीं बैठते और अपनी कविताओं से भी इसी कर्मपथ पर चलने की प्रेरणा देते हैं:-


बाधाएँ आती हैं आएँ

घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,

पावों के नीचे अंगारे,

सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,

निज हाथों में हँसते-हँसते,

आग लगाकर जलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।


वाजपेयी जी "ऊंचाई" कविता मेरी प्रिय कविताओं से एक है। इस कविता में जैसे वाजपेयी जी की जीवन यात्रा से उपजे अंनुभवों का एक शाब्दिक चित्र निर्मित हो जाता है। जीवन यात्रा में मिले तमाम सकारात्मक -नकारत्मक अनुभवों के आधार पर ही हम व्यक्ति यह जान पाता है कि सफलता- असफलता के क्या मापदंड है। जीवन की ऐसी उपलब्धियों को वो निरार्थक मानतें हैं जो व्यक्ति को अपनों से बहुत दूर कर दे, इतना दूर कि फिर उस के मन से जुडना ही असंभव प्रतीत होने लगे:-


सच्चाई यह है कि

केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,

सबसे अलग-थलग,

परिवेश से पृथक,

अपनों से कटा-बँटा,

शून्य में अकेला खड़ा होना,

पहाड़ की महानता नहीं,

मजबूरी है।

ऊँचाई और गहराई में

आकाश-पाताल की दूरी है।


इसलिये वो कहते हैं कि व्यक्तित्त्व में जितनी ऊंचाई हो उतनी ही गहराई और विस्तार भी हो, जैसे आकाश कितना ऊंचा है, सबसे ऊंचा। फिर आकाश अपनी आलोक में पूरी सृष्टि को समेटे हुए हैं। अत: मनुष्य भी भले जीवन पथ पर कितना सफल, कितना आगे निकल जाए, उसे अपना व्यक्तित्त्व ऐसा बनाएं रखना चाहिये कि उससे मिलकर, उससे जुडकर अपने हो या पराए, सब एक अपनत्त्व का आभास पाएं। कहते हैं न बडा आदमी वह होता है जिससे मिलकर आम आदमी भी खुद पर गर्व महसूस करने लगे। खुद को महत्वपूर्ण समझने लगे:‌-


ज़रूरी यह है कि

ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,

जिससे मनुष्य

ठूँठ सा खड़ा न रहे,

औरों से घुले-मिले,

किसी को साथ ले,

किसी के संग चले।


हम सभी जानतें हैं कि प्रधानमंत्री पद से मुक्त होने के बाद से वाजपेयी जी ने जैसे राजनीतिक जीवन से भी एक दूरी बना ली थी और एकांत में रहने लगे थे। इस दौरान उन्होनें घुटनों का ऑपरेशन भी करवाया था जो सफल नहीं रहा और वाजपेयी जी के स्वास्थ में लगातार गिरावट दर्ज होने लगी। लेकिन बावजूद इसके वाजपेयी जी ने एक  उम्र का शतक पार किया, यह उनकी जीवन के प्रति जीजिविषा और उनके प्रति देशवासियों के प्रेम का परिणाम ही था । यह जीजिविषा , यह दृढ संकल्पशक्ति वाजपेयी जी की कविताओं में भी देखने को मिलती है:-


मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,

ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,

लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,

सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।


''मौत से ठन गयी" इस कविता में वाजपेयी जी जिस सहजता से जीवन और मृत्यु के अंतर को समझाते हैं वो अनुपम है। सचमुच जीवन या ज़िंदगी एक लम्बी यात्रा है, एक लम्बी प्रक्रिया है ,जब्कि मृत्यु की उम्र महज एक पल की होती है, और उस एक पल में ही मृत्यु अपने साथ जैसे पूरे जीवन को ले जाती है। लेकिन वाजपेयी जी जैसा कर्मठ व्यक्तित्त्व क्या कभी मौत देखकर या मृत्यु का नाम सुनकर घबराएगा? नहीं। वाजपेयी जी तो अपनी जीवन यात्रा से संतुष्ट थे, उन्हें अब मृत्यु का भी कोई भय नहीं.... इसलिये वो जैसे मृत्यु को चुनौती देते हुए कहते हैं कि तुझे आना ही है तो सामनें से से, और मेरी जीजिविषा का सामना कर्। यूं छ्ल, कपट करके, दबे पांव मत आना जब मैं सो रहा हूं .... क्योंकि मुझे तेरा कोई भय ही नहीं। यह वाजपेयी जी की जीवन के प्रति उत्कंठा ही थी कि 102 वर्ष के एक गौरवशाली,गरिमामयी और संतुष्ट जीवन जीने के बाद ही 16 अगस्त वर्ष 2018 को मृत्यु उन्हें अपने साथ ले जानें की हिम्मत जुटा पायी।


निष्कर्ष


आधुनिक भारतीय राजनीति के सर्वमान्य व्यक्तित्व के रूप में प्रसिद्ध  कवि-ह्रदय भारतरत्न अटल बिहारी वाजपेयी जी के संवेदनशील और ह्रदयस्पर्शी भाव उनकी कविताओं के रूप में निरंतर प्रकट होते रहे। आतमानुभव से उपजी उनकी कविताओं में जीवन का यथार्थ चित्रण है तो साथ ही नश्वरता की गहरी अनुभूति भी। कर्तव्य बोध है, आत्मचेतना है, आत्मविश्वास है और जीवन के प्रति जीजिविषा भी। उनकी कविताओं में  उपदेश नहीं है, न ही कोरी कल्पनाएं। इसीलिये वाजपेयी जी की कविताएं सीधे आम जन से संवाद करती हैं, सीधे आमजन से जुडती हैं। काव्यानुरागियों के बीच आज भी वाजपेयी जी की कविताएं अपनी अमिट छाप जमाएं हुए है।  

वाजपेयी जी का काव्य व्यक्तित्व जीवन पर्यंत मूल्य-बोध के प्रति सजग रहा . अटल जी की ही पंक्तियों में – ‘’आदमी की पहचान उसके पद से या धन से नहीं होती,उसके मन से होती है,मन की फकीरी पर तो कुबेर की संपदा भी रोती है.‘’ ऐसे विराट सोच के स्वामी थे वाजपेयी!


संदर्भ सूची -


1.      न दैन्यं न पलायनमं - अटल बिहारी वाजपेयी – पृष्ठ-14,15, 37, 95 -  किताब घर प्रकाशन दिल्ली  - वर्ष 2006

2.      मेरी 51 कविताएं - अटल बिहारी वाजपेयी – पृष्ठ -34,85,97 - किताब घर प्रकाशन दिल्ली  - वर्ष 2006 

3.      अटल बिहारी वाजपेयी की काव्य साधना – डॉ.राहुल – पृष्ठ – 16- मंजुली प्रकाशन नई दिल्ली – वर्ष 1999

4.      जीने के बहानें – प्रभाष जोशी- पृष्ठ – 112 -126 – राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली –वर्ष – 2008

5.      चुनी हुई कविताएं – अटल बिहारी वाजपेयी- पृष्ठ – 9,10,11- प्रभात प्रकाशन दिल्ली- वर्ष – 2007

6.      मैं अटल बिहारी वाजपेयी बोल रहा हूं- एम.आई.राजस्वी- पृष्ठ – 16- 30 , 40- 45 – प्रभात प्रकाशन दिल्ली- वर्ष – 2020

7.      अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व उनकी कविताओं से झलकता है- डॉ.साकेत सहाय - https://www.hindi.awazthevoice.in/

8.      https://sahityadarpan.com/atal-bihari-vajpayee-poems/

9.      अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं - https://hindihaat.com/2017/11/atal-bihari-vajpayee-and-his-poems-in-hindi.html

10.  अटल जी की वो कविताएं जिनके लिये उन्हें आज भी याद किया जाता है-   https://www.firstverdict.com/literature/kavya-rath/five-most-famous-poems-of-atal-bihari-vajpayee-atal-ki-kavitayen


लेखक परिचय:

डॉ. सुजाता मिश्र, अतिथि विद्वान, हिन्दी विभाग, डॉ हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, मध्यप्रदेश


उद्धृत करें:

मिश्र, डॉ. सुजाता (मार्च, 2023). कविवर अटल बिहारी वाजपेयी के काव्य में निहित जीवन दर्शन. समकालीन हस्तक्षेप.  16(7), पृष्ठ 19-23 

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