साँची स्तूप, मध्य प्रदेश |
12वीं
शताब्दी के उपरांत जिस प्रकार से बौद्ध धर्म का भारतवर्ष से धीरे-धीरे लोप होता गया, और वह लगभग 18वी. शताब्दी के प्रारम्भ में
रुका,
जब
भारत वर्ष में अंग्रेज अफसरों के द्वारा उत्खनन कार्य के दौरान बौद्ध धर्म से संबन्धित
अवशेष प्राप्त हुए । 18वी. शताब्दी से लेकर पुरातत्वविदों ने पूरे भारत वर्ष तथा भारत
के आस पास के देशों में खुदाई और उत्खनन के कार्य का बीड़ा उठाया और देखते ही देखते
कई सारे बौद्ध धर्म से संबन्धित स्थानों का पता चला । इस कार्य को सर्वप्रथम समुचित
रूप से अलेक्जेंडर कनिंघम और उनके सहयोगियों द्वारा ही प्रारंभ किया गया । कनिंघम ने
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की स्थापना की तथा चीनी यात्रियों के लिखित साक्ष्यों के
आधार पर अलेक्जेंडर कनिंघम ने ही प्रमुख बौद्ध महातीर्थों की खोज की । इन उत्खनन में
मुख्यता बौद्धगया,
कुशीनगर, सांची, लुम्बिनी, सारनाथ, नालंदा, वैशाली, राजगीर, कौशांबी, श्रावस्ती, और संकिसा इत्यादि स्थानों का पता चला ।
इसके साथ ही इन पुरातत्वविदों ने बौद्ध संघ की भी नींव डाली और पुरातन प्रकार से संघ के नियम तथा आदि कार्य सम्पन्न कराने का भी भरपूर प्रयास किया । कई सारे स्कूल खोले गए और जिनका बौद्ध के नाम पर नाम रखा गया, साथ ही साथ बौद्ध दर्शन आदि की भी शिक्षा देने का भी प्रबंध किया गया । पुरातत्वविदों के द्वारा खुदाई में प्राप्त स्थलों, अशोक के अभिलेखों ने फिर से लोगों में बौद्ध धर्म तथा बौद्ध राजाओं के प्रति खोयी हुई श्रद्धा को फिर से स्थापित करने का काम किया। पुरातत्वविदों द्वारा लेखन कला की सहायता से बौद्ध धर्म और महातीर्थों के संदर्भ में अनगिनत पुस्तकों का सम्पादन तथा प्रकाशन किया गया और बौद्ध धर्म को फैलाने में बहुमूल्य योगदान दिया।
बीज-शब्द: बौद्ध धर्म, पुरातत्वविद, बौद्ध संघ, बौद्ध दर्शन, पुनरुत्थान, अभिलेख आदि।
प्रस्तावना
किसी भी सभ्यता और समाज के इतिहास के बारे में जानने का सबसे उत्तम साधन साहित्यिक और पुरातात्विक स्त्रोत हैं। साहित्य पुरातात्विक खोजों में मदद करता है, तो पुरातात्विक खोजें भी इतिहास को साहित्य के रूप में लिखने में अपनी भूमिका अदा करती हैं । जब साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्य एक समान प्राप्त होते हैं तब असली इतिहास का मालूम चलता है । कभी-कभी पुरातात्विक तो कभी केवल साहित्यिक साक्ष्य ही प्राप्त होते हैं । प्रारम्भ में सभ्यताओं के विकास के साथ ही इन्सानों ने जीने के तौर तरीकों में बदलाव करना प्रारम्भ कर दिया था । जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए समय-समय पर नियमों को धारण किया गया, जिन्होंने आगे चलकर रीति-रिवाजों का रूप ले लिया और समय पर्यंत कुछ रीति रिवाज धार्मिक कर्म-काण्ड बन गए । यही धार्मिक कर्म-काण्ड सामाजिक कुरुति बन, इन्सानों की ज़िंदगी में परेशानियों का कारण बन गई । इन्हीं कर्म-काण्डों का विरोध कर इन्हें दूर करने तथा इन्सानों के दुखों को दूर करने के लिए समय-समय पर कई महापुरुषों ने जन्म लिया । श्रमण परंपरा में गौतम बुद्ध भी उन महापुरुषों में से एक थे । बौद्ध धर्म आज भारत को छोडकर पूरे विश्व में अधिकता से फैला हुआ है । बौद्ध धर्म दुनिया को गौतम बुद्ध की देन है, जिन्होने अपने पुरुषार्थ से उस परम सत्य को प्राप्त किया और अपनी कल्याणकारी शिक्षाओं के कारण ही जनमानस में लोकप्रिय हुए । गौतम बुद्ध ने पंचशील, चार आर्य सत्य ,आर्य अष्टांगिक मार्ग, तथा प्रतित्समुत्पाद की शिक्षाओं को तत्कालीन समय के ग्राम, नगर, जनपदों में जन मानस के बीच प्रसारित किया । भगवन ने हमेशा मानव को दो अतियों से विरत रहने और मध्यम मार्ग को पालन करने की सलाह दी । भगवान बुद्ध की प्रमुख शिक्षाओं में पंचशील[1], चार आर्य सत्य, आर्य अष्टांगिक मार्ग, प्रतीत्यसमुत्पाद, कार्य कारण सिद्धांत आदि प्रमुख हैं । पंचशील सिद्धांत निम्न प्रकार है ।
- पाणातिपाता वेरमणी-सिक्खापदं समादयामि।।
- अदिन्नादाना वेरमणी- सिक्खापदं समादयामि।।
- कामें सु मिच्छाचारा वेरमणी- सिक्खापदं समादयामि।।
- मुसावादा वेरमणी- सिक्खापदं समादयामि।।
- सुरा-मेरय-मज्ज-पमादठ्ठाना वेरमणी- सिक्खापदं समादयामि।।
गौतम बुद्ध ने कहा, इस संसार
में कुछ भी शाश्वत नहीं है और यह नियम सभी पर लागू होता है । 80 वर्षों तक अपनी
शिक्षाओं का प्रसार करने के उपरांत, बुद्ध महपरिनिर्वाण को
प्राप्त हुए । [2]
महापरिनिर्वाण के कुछ ही समय उपरांत बौद्ध संघ में विभेद उत्पन्न हो गया इसके साथ
ही बौद्ध धर्म का भी धीरे-धीरे ह्रास होना प्रारम्भ हो गया। “बौद्ध धर्म के पतन
में जो कारण प्रमुख थे वह- अरब और तुर्कों का आक्रमण, बौद्ध
धर्म को तत्कालीन समय के राजाओं का सानिध्य प्राप्त न होना,
मुस्लिम आक्रांताओं का प्रभाव, हिन्दू राजा तथा हिन्दू धर्म
के साथ सामंजस्य न हो पाना, संघ के आंतरिक भेद इत्यादि” ।[3] लगभग
12वीं शदी के बाद से लेकर 18वीं शदी तक बौद्ध धर्म लगभग विलुप्त सा ही रहा, जब तक की अंग्रेज़ अधिकारियों द्वारा खुदाई में बौद्ध धर्म से संबन्धित
अवशेष इत्यादि प्राप्त ना होने लगे । भारतीय पुरातत्वविदों की भी एक लंबी श्रंखला
है जिन्होने बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान में अपना योगदान दिया । जिनमें प्रमुख रूप
से जिनका योगदान हम कह सकते है वो हैं दयाराम साहनी, देबला
मित्रा, माधो स्वरूप वत्स, राजबली
पांडे, मजूमदार इत्यादि I
शोध
प्रविधि
इस शोध पत्र की विषयवस्तु इतिहास और पुरातत्व से संबंधित है । शोध प्रविधि के रूप में ऐतिहासिक और साहित्यिक प्रविधि का प्रयोग किया है । पुरातत्व से संबंधित होने के कारण कुछ पुरातात्विक स्थलों का मुआयना भी किया ।
अलेक्जेंडर कनिंघम और बौद्ध धर्म
बौद्ध
धर्म भारतवर्ष की श्रमण परंपरा से उदय हुआ और अपनी जन कल्याणी शिक्षाओं के कारण
पूरे विश्व में फैल गया । जबकि वर्तमान भारत में उस अवस्था को प्राप्त नहीं कर
पाया है जैसा प्रारम्भ में था । बौद्ध धर्म के पतन के उपरांत पुनः बौद्ध धर्म के
पुनरुद्धार का कार्य विदेशियों के द्वारा व्यापक रूप से किया गया । “डी. एल.
रामटेके के अनुसार सर्वप्रथम 1750 ईस्वी में पादरे को मौर्य सम्राट अशोक कालीन
शिलालेख देहली में रठ के पास एक स्तम्भ से प्राप्त हुआ तथा कुछ समय पश्चात ही कोसम
(कौसम्बी) स्तम्भ इलाहाबाद से प्राप्त हुआ ।[4] इस
प्रकार अन्वेषण का दौर प्रारम्भ हुआ और क्रमशः अशोक कालीन अन्य स्तम्भों और
शिलालेखों जैसे सन 1784 में राधिया का स्तम्भ तथा 1785 में बारबार पहाड़ी गुफा के
अभिलेख खोज निकाले गये ।[5] इसी साल कैप्टन
पोइलर ने फिरोज शाह कोटला दिल्ली में दिल्ली-टोपरा स्तम्भ को खोज कर स्तम्भ पर
लिखित लिपि की एक तस्वीर सर जॉन विलियम (आसियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल) को भेज दी” । यह स्तंभ 14वी शताब्दी में फिरोज शाह तुगलक द्वारा टोपरा कलां से दिल्ली मंगवा लिया गया
।[6]इन खोजों ने तो जैसे
बुद्ध धर्म के पुनरुत्थान के कार्य में गति प्रदान कर दी ।
सन 1784 से लेकर 1819 के मध्य बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान के
लिए कई कार्य किए गए । सन 1819 में अजंता, एलोरा, नासिक, कारले, भाजा, जुन्नर आदि गुफाओं का पता लगया गया ।[7] इन
गुफाओं में भित्तिचित्र भी प्राप्त हुये, जिनका संबंध बौद्ध
धर्म के साथ साथ अन्य धर्मों के साथ भी था ।[8] इसके साथ ही बौद्ध, हिन्दू तथा जैन मंदिरों को भी
इन गुफाओं के अंदर खोजा गया जो इस बात का प्रमाण है की बौद्ध धर्म के साथ साथ अन्य
धर्मो को भी उस समय महत्व दिया जाता था । जिसका प्रमाण यह पुरातात्विक खोज से
प्राप्त अवशेष हैं ।
सन 1836 तक अशोक कालीन अधिकतर स्तम्भों को खोज लिया गया था, लेकिन उन्हे
पढ़ा नहीं जा सका था । अशोक कालीन स्तम्भों पर उद्धित लिपि को नहीं पढ़ा जा सकने का
मुख्य कारण उस लिपि के वर्णमाला क्रम के प्रति अनभिज्ञता हो सकता है । सर्वप्रथम
सन 1837 ईस्वी में जेम्स प्रिंसेप ने प्राकृत भाषा में लिखे एक अभिलेख पर दो शब्द
द और न को पढ़ा तथा उसका अर्थ दान निकाल कर पूरे लेख का अनुवाद किया ।[9]
प्रिंसेप ने मुख्यतया अशोक कालीन स्तम्भ की लिपि को पढ़ना तथा पूर्ण वर्णमाला का
ज्ञान प्रसारित करना इत्यादि महत्वपूर्ण कार्य किया ।
बौद्ध धर्म के पुनरुद्धार में जिन विदेशी पुरातत्वविदों का
महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है, उनमें सर अलेक्जेंडर कनिंघम का नाम सबसे ऊपर रखा जाता है । सर कनिंघम का
जन्म 23 जनवरी 1814 को लंदन में हुआ ।[10] 19
साल की उम्र में बंगाल यान्त्रिकी के साथ जुड़कर, लगभग 28
वर्षों तक भारत में राज कर रही ब्रिटिश सरकार के लिए काम किया ।
1833 में भारत पहुँचने के
तुरंत बाद ही उनकी मुलाक़ात जेम्स प्रिंसेप से हुयी । जेम्स प्रिंसेप द्वारा
मांकियाला स्तूप के बारे में लिखे गए उनके लेख के संदर्भ में सन 1834 में कनिंघम
ने आसियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल के लिए एक लेख प्रस्तुत किया और सन 1837 में जेम्स
प्रिंसेप ने कनिंघम की भारतीय पुरातत्व में रुचि को देखकर ही उन्हे अपने सहयोगी की
तरह नियुक्त किया । “इसी वर्ष कनिंघम ने कर्नल एफ. सी. में सी के साथ मिलकर सर्वप्रथम सारनाथ
के धम्मेक स्तूप (जिस स्थान पर भगवान बुद्ध के द्वारा प्रथम प्रवचन-
धम्मचक्कपवत्तन सुत्त दिया गया) के उत्खनन का कार्य खुद के खर्च पर प्रारम्भ किया
और खुदाई में प्राप्त अवशेषों का रेखांकन का कार्य किया” ।[11] इसी
क्रम में उन्होने 1842 में संकिसा[12] तथा
1851 में साँची[13]
में उत्खनन का कार्य किया और 1854 में लिखित अपनी पुस्तक ‘द
भीलसा टॉप्स’ में साँची और साँची के आस पास से खुदाई में
प्राप्त स्तूपों और अभिलेखों का वर्णन किया है । साँची स्तूप में उन्होने भगवान
बुद्ध के प्रमुख शिष्य सरिपुत्त और महामोग्गलाना के शारीरिक धातु अवशेषों को खुदाई
के दौरान प्राप्त किया ।[14]
बौद्ध धर्म के सभी मौजूदा अवशेषों, उनकी वास्तुकला, मूर्तिकला, सिक्कों और शिलालेख आदि का प्रकाशन भारतीय
इतिहास को चित्रित करने के लिए बेहद जरूरी था ।
इसके अलावा, वास्तुशिल्प
और मूर्तिकला के अवशेष दिन व दिन बिगड़ते हुए और शिलालेख टूटे हुए प्राप्त हो रहे थे। ऐसा
पता चलता है कि बौद्ध धर्म कई शताब्दियों तक पल्लवित होता रहा । बौध्द इमारतों, सिक्कों और अभिलेखों
आदि का तब तक कुछ नही बिगड़ा जब तक कि मोहम्मद गज़नी ने आक्रमण करके अधिकांश हिस्सों
को तहस-नहस किया । नवंबर 1861 में कनिंघम
ने लार्ड कैनिंग को एक ज्ञापन भेजा जिसमें उन्होंने भारत की प्राचीन परंपराओं के प्रति
सरकार की उदासीनता की शिकायत की। कंनिंघम ने लिखा कि अब समय
आ गया है कि
ब्रिटिश सरकार,
प्राचीन भारत के सभी मौजूदा स्मारकों का सावधानीपूर्वक और व्यवस्थित
अन्वेषण कर सम्मानपूर्वक संरक्षण का कार्य करे । लॉर्ड केनिंग ने कनिंघम की अगुआई में
एक ग्रुप बनाया और इस कार्य को स्वीकृति प्रदान की । सन 1881 से 1885 तक सर कनिंघम
को प्रथम भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षणकर्ता की उपाधि से पुरुष्कृत किया गया ।
फ्रांसीसी विद्वान एम. एस. जूलियन द्वारा सुयांजंग की भारत
यात्रा पर लिखित यात्रा विवरण (सी. यू. की.) का अनुवाद एवं प्रकासन किया गया ।
कनिंघम द्वारा सुयांजंग के विवरण का अनुशरण करते हुये लगभग बौद्ध धर्म के संबन्धित
सभी महत्वपूर्ण स्थानों को फिर से ज्ञात कर लिया गया था । बौद्ध धर्म के
पुनर्जागरण में चीनी यात्रियों के यात्रा विवरण ने कनिंघम के खोजकार्य को गति देने
का काम किया । कनिंघम ने भी अपना अधिकतर समय चीनी बौद्ध भिक्षुओं के द्वारा बताए गए
बौद्ध स्थलों को खोजने में व्यतीत किया । कनिंघम ने सुयांजंग द्वारा
निर्देशित स्थान अर्नोस, तकक्षिला, संगला, स्रुघना, अहिच्छत्र, बैराट, संकिसा, श्रावस्ती, कौशांबी, पद्मावती, वैशाली, और नालंदा इत्यादि प्रमुख बौद्ध स्थलों को
फिर से खोज निकाला । अन्य स्थानों की अपेक्षा तकक्षिला की पहचान में काफी
मुश्किलें रहीं क्योंकि अपने प्राकृतिक इतिहास से तकक्षिला की दूरी हारो नदी से दो
दिन दूर किसी स्थान की ओर संकेत करती है । यह निष्कर्ष उनकी पुस्तक ‘प्राचीन भारत की भौगोलिक स्थिति’ भाग-1 में उन्होने
प्रकाशित किया, जिसमें उन्होने बौद्ध काल तक वर्णन किया, साथ ही साथ राजा हर्ष के काल में बौद्ध धर्म की प्रसिद्धि का भी उल्लेख
किया । लेकिन इस पुस्तक का दूसरा भाग, जिसमें मुगल काल तक का
विवेचन पूर्ण नहीं कर सके थे ।
कनिंघम को बौद्ध
धर्म का पुनरुद्धारक कहे जाने के पीछे जो कारण है, उसमें उनका बौद्ध धर्म के प्रति
किया गया कार्य जो कि प्रमुख बौद्ध स्थानों को खुदाई से लेकर बौद्ध समाज तथा संघ
कि पुनः स्थापना करना, इसके साथ ही ऐसे कई संस्थानों कि भी
स्थापना करना जंहा भगवान बुद्ध की शिक्षाओं का ज्ञान प्रदान करना तथा उनकी
शिक्षाओं का प्रसार करना। कनिंघम ने अपनी पुस्तक महाबोधि और बोध गया का महान बौद्ध
मंदिर में बोध गया तथा उसके आस पास के स्थानों पर की गयी खुदाई का विवरण प्रकाशित
किया । बोध गया का खुदाई के उपरांत प्राप्त होना तथा आम जन मानस में बापस भगवन
बुद्ध के प्रति श्रद्धा का जागृत होना , और यह सब कनिंघम के योगदान का ही परिणाम
था। सन 1877 में कनिंघम ने अशोक के तत्कालीन शिलालेखों को एक खंड में प्रकाशित
किया ।
कनिंघम द्वारा किए गए अन्य प्रमुख कार्यों में 1877 में प्रकासित इंडिकेरम कॉर्पस शिलालेखों का प्रथम खंड जिसमें, उन्होने अशोक के शिलालेख, भरहुत के स्तूप (1879), और भारतीय युगों की पुस्तक (1883) की प्रतियों का संग्रह किया, जिनकी मदद से भारतीय पुरावशेषों के काल निर्धारण में सहायता मिलती रहती है ।
निष्कर्ष
जेम्स प्रिंसेप ने कनिंघम के समय में ही ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का अर्थ निकाल लिया था, जिसके फलस्वरूप खुदाई में प्राप्त स्तम्भ और शिलाखंडों पर उद्धित शिलालेखों पर लिखे शब्द प्रियदर्शी को जब पढ़ा गया तो वह प्रियदर्शी कोई और नहीं बौद्ध धर्म का परम उपासक सम्राट अशोक ही है ऐसा पाया गया । बौद्ध धर्म के पुनरुद्धार में सबसे बड़ी उपलब्धि कनिंघम को प्राप्त हुयी वह बुद्ध के शारीरिक धातु अवशेषों का सारनाथ के धम्मेक स्तूप से पाया जाना था । धम्मेक स्तूप से प्राप्त शिलालेख पर बुद्ध के प्रथम उपदेश के संबंध में लेख लिखा हुआ था, जो अशोक के बौद्ध धर्म के प्रति समर्पण को दर्शाता था ।
कनिंघम ने भारतीय
पुरातात्विक सर्वेक्षण की स्थापना के बाद चीनी यात्रियों के वृतांत के आधार पर
बौद्ध धर्म के सभी महत्वपूर्ण स्थलों की खोज करके बौद्ध धर्म को फिर से भारत में
जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । कनिंघम द्वारा केवल बौद्ध स्थलों को
खुदाई में पुनः प्राप्त नहीं गया था, बल्कि उनके संरक्षण का भी काम किया गया।
कनिंघम के द्वारा किए गए पुरातात्विक सर्वेक्षणों और खोजों की मदद से कई बौद्ध भिक्षुओं और उपासकों ने भी बौद्ध धर्म के पुनरुद्धार में अपना योगदान दिया । कनिंघम ने अपने पद से सेवानिवृत्त होने के उपरांत बौद्ध पुरातात्विक स्थलों के संदर्भ में कई शोध पत्र प्रस्तुत किए, और उन्हे प्रकाशित कर बौद्ध धर्म के इतिहास को फिर से लोगों के बीच लाने का कार्य किया । बौद्ध धर्म के पुनरुद्धार में सर अलेक्जेंडर कनिंघम के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है ।
संदर्भ सूची
[1]
Getz, Daniel A. (2004), "Precepts", in Buswell, Robert E.
(ed.), Encyclopedia of Buddhism, Macmillan Reference USA, Thomson
Gale, ISBN 978-0-02-865720-2
[3] Sarao K.T.S. (2012). The decline
of Buddhism in india. New Delhi: Munshiram Manoharlal Publishers Pvt. Ltd. P.27
[4] Ramteke D.L., “Revival of
Buddhism in Modern India” Deep and Deep Publication, New Delhi, 1983, P.43
[5] Ibid. p. 43
[6]
Bhandarkar, R. G; D.R. Bhandarkar (2000). Asoka. Social and Religious life.
Asian Educational Services. ISBN 81-206-1333-3.
[7] Spink, Walter M.
(2007). Ajanta: History and Development, Volume 5: Cave by Cave. Leiden:
Brill. ISBN 978-90-04-15644-9. Pp. 3, 137
[8] Keay, John (2000). India: A
History. New York: Grove Press. pp. 103, 124–127
[9] Allen Charles, “The Buddha
and The Sahibs” John Murray publishers, London, 2003, P.180
[10] buckland, Charles Edward (1906).
Dictionary of Indian biography. London: swan sonnenschein & co.
[11] Cunningham, alexander (1871).
“banaras sarnath”. Four reports made during the years 1862-63-64-65. Vol. 1.
Shilma, himachal Pradesh, india. Pp. 103-130
[12] An Account of the Discovery of
the Ruins of the Buddhist city of Samkassa*, JRAS., 1843, 241 ff.
[13] cunningham, alexander. (1854).
The Bhilsa Topes or, Buddhist Monuments of Central India. London: Smith, Elder
and Co. p. x
[14] Ibid. p. 35
लेखक परिचय:
अविनाश बर्मन, पी-एच.डी. शोधार्थी, बौद्ध अध्ययन, सांची बौद्ध-भारतीय ज्ञान अध्ययन विश्वविद्यालय, सांची, मध्य प्रदेश
उद्धृत करें:
बर्मन, अविनाश (मार्च, 2023). भारत में बौद्ध धर्म की स्थिति और अलेक्जेंडर कनिंघम का योगदान: एक समीक्षात्मक अध्ययन. समकालीन हस्तक्षेप. 16(7), पृष्ठ 14-18